( जिसकी सामाजिक और नागरिक प्रतिबद्धता ही संदिग्ध हो उससे हम पर्यावरणीय जिम्मेदारियों के निर्वहन की आशा कैसे करें? )
गंगा की स्वच्छता और अविरलता में बाधा पहुंचने से तकरीबन 10 करोड़ की आबादी की खाद्य व्यवस्थाएं प्रभावित होती हैं।
भारत सांस्कृतिक प्रतीकों वाला देश है। देश के तमाम भौगोलिक अवयव संस्कृति और धर्म के माध्यम से इंसानों से जुड़े हुए हैं। गंगा भी ऐसी ही सांस्कृतिक आस्था की प्रतीक है। कहते हैं पितरों के उद्धार के लिए भगीरथ नाम के रघुवंशी राजा ने शिव की तपस्या कर गंगा का धरती पर अवतरण कराया था। गंगा की मृत्युलोक में जाने की आशंका का समाधान करते हुए ब्रह्मा ने उनसे कहा कि पृथ्वी पर कलियुग काल आते ही आप स्वर्गलोग लौट आना। दादी ने इस कहानी को कई बार सुनाया है और बताया है कि गंगा तो स्वर्ग लौट चुकी हैं। कलिकाल में धरती पर कोई गंगा नहीं है। गंगा केवल गंगा की प्रतीक भर हैं। लेकिन फिर भी गंगा बेसिन की सभ्यताओं को जीवन देने के लिए गंगा का आभारी होना जरूरी है। तमाम बातें जो गंगा को लेकर जनसाधारण के बीच लोकप्रिय हैं उनमें से एक है कि गंगा का पानी चाहे जितने दिनों तक घर में रखें, कभी खराब नहीं होता।
इससे पीछे उसकी दिव्यता का तर्क दिया जाता है। औषधीय जड़ी-बूटियों और खनिजों से भरपूर मार्ग का अनुसरण भी इसका एक कारण है। लेकिन आज की परिस्थिति में झांके तो पता लगे कि घर में तो दूर की बात है, गंगा स्वयं गंगा में भी स्वच्छता से कोसों दूर हो गई हैं। स्नान, कारखानों की गंदगी, धार्मिक अवशिष्ट सामग्रियों का विसर्जन, मूर्तियों इत्यादि का विसर्जन, पशुओं को नहलाना, विभिन्न परियोजनाएं, बांध और बैराज इत्यादि कारकों ने गंगा की पवित्रता और दिव्यता को काफी प्रभावित किया है।
भयभीत हैं पर्यावरणकर्मी – हिंदू रीति-रिवाजों, मान्यताओं और धार्मिक प्रतीकों को प्रमाणित करने के लिए लोग इसे लगातार विज्ञानी तर्कों से संतुष्ट करते रहते हैं। इसी कारण कहा जाता है कि पीपल को पूज्य माना गया ताकि हमेशा ही ऑक्सीजन देने वाले पीपल को कोई काटे नहीं। नीम भी इसीलिए पूजन के योग्य है कि वह एक औषधीय वृक्ष है। गंगा को माँ कहने के पीछे धर्म वैज्ञानिक तर्क देते हैं कि इससे गंगा संरक्षण के प्रति लोगों की धार्मिक प्रतिबद्धता सुनिश्चित हो सकेगी और गंगा की स्वच्छता के अभियान में सहायता मिलेगी। लेकिन ऐसा है क्या? मौजूदा परिस्थितियों में तो ऐसा कहीं दिखाई नहीं देता। लोगों की लगातार उपेक्षाओं, प्रदूषण और जलाभाव की वजह से सदानीरा कई जगहों पर मृतप्राय दिखती है।
विज्ञान के चरम युग में पहुंचे इंसानों के लिए यह फिलहाल कोई परेशानी का सबब नहीं है। लेकिन पर्यावरण की अतीत की घटनाओं के विश्लेषण और मौसम के बदलते मिजाज को भांपने वाले पर्यावरणकर्मी इससे सिर्फ चिंतित ही नहीं है बल्कि भयभीत भी हैं। उन्हें पता है कि यदि इस प्राकृतिक जीवनरेखा के साथ ऐसे ही दुर्व्यवहार होता रहा तो एक दिन विज्ञान के पास भी मनुष्यता को बचाने के कोई संसाधन शेष नहीं रह जाएंगे। गंगा केवल भारत के सांस्कृतिक इतिहास का प्रवाह नहीं है। गंगा इस देश के करोड़ों लोगों की जीवन रेखा है। गंगा की स्वच्छता और अविरलता में बाधा पहुंचने से तकरीबन 10 करोड़ की आबादी की खाद्य व्यवस्थाएं प्रभावित होती हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, इस वजह से गंगा की गोद में पलने वाले अनेक जलीय जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर भी भारी संकट आन पड़ा है। दुर्लभ गंगा डॉल्फिन राष्ट्रीय नदी के एक बड़े हिस्से से लगभग विलुप्त हो चुकी है। गंगा की इसी चिंता के प्रति स्वामी निगमनानाद और गुरुदास अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद जागरूक थे। उन्हें गंगा की पर्यावरणीय महत्ता के बारे में ज्ञान था।