अभय कुमार की रिपोर्ट —
ये प्रतीक तभी से लगभग एक जैसे हैं जबसे देश आजाद हुआ और गणतंत्र स्थापित हुआ. बाद में इन प्रतीकों में दोपहर को टीवी पर आने वाली गांधी, मदर इंडिया सरीखी फिल्में भी शामिल हो गईं.
लेकिन सवाल उठता है कि क्या गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय त्योहार सिर्फ यहीं तक हैं या फिर इनसे आगे भी इनका कोई महत्व है? और यदि ये यहीं तक सीमित हैं तो फिर इन्हें मनाने या याद करने का औचित्य क्या है?
इस बारे में जब युवाओं से बातचीत की जाती है तो कई बार बड़े रोचक जवाब मिलते हैं. बहुत से युवा इस दिन को एक प्रकार से ‘देशभक्ति दिवस’ की तरह से देखते हैं तो कुछ घूमने-फिरने के लिए एक आवश्यक रूप से मिलने वाली छुट्टी की तरह से और कुछ के लिए ये दिन भी उन्हीं अन्य त्योहारों की तरह हैं जिन्हें हर साल अनिवार्य रूप से मनाया जाता है.
लखनऊ के रहने वाले और दक्षिण भारत के हैदराबाद में एक इंजीनियरिंग संस्थान में अध्यापन करने वाले पवन यादव कहते हैं, “ये बेहद ख़ुशी का दिन होता है क्योंकि ये राष्ट्रीय पर्व है. इस दिन धार्मिक पर्वों या अलग अलग क्षेत्रीय पर्वों जैसी सीमाएं नहीं होतीं. हालांकि मैं बचपन से सोचता था कि स्वतंत्रता दिवस का महत्व ज्यादा होना चाहिए क्योंकि उस रोज तो हम गुलामी से आजाद हुए थे पर जो आभा गणतंत्र दिवस या 26 जनवरी की होती है वो 15 अगस्त से बहुत ज़्यादा होती है. बहुत दिन बाद जाकर इस अंतर का मतलब समझ में आया.”
पवन यादव इस अंतर को कुछ यूं बताते हैं, “आजाद होने में और गणतंत्र घोषित करने में बहुत अंतर है. आज के दिन हमने एक महान संविधान को एक राष्ट्र के तौर पर अपनाया था. वो संविधान जो हिंदुस्तान के हर नागरिक को किसी जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग के आधार पर भेदभाव किए बगैर सबको बेहद जरूरी मूल अधिकार प्रदान करता है और उनकी सुरक्षा की गारंटी भी देता है और साथ ही नागरिकों को मौलिक कर्तव्य भी बताता है और ये उम्मीद करता है कि नागरिक उनका क्रियान्वयन करेंगे.”
दरअसल, इस दिवस को उत्सव के रूप में हर साल मनाने, खासतौर पर विद्यालयों में मनाने का रिवाज भी इसीलिए है ताकि बच्चों के भविष्य निर्माण के साथ ही उनकी अपने नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता और नागरिक के तौर पर देश और समाज के प्रति कर्तव्यों के ज्ञान का विकास हो. विद्यालयों और कॉलेजों के बच्चों में इस किताबी ज्ञान में वृद्धि जरूर होती है लेकिन वो व्यावहारिक धरातल पर आगे चलकर कितना उतर पाता है, ये अक्सर सवाल बनकर खड़ा रहता है.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रोफेसर रहे हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं, “सात दशक बाद भी हम अपने गणतंत्र को याद करते हैं, उसे पाने के पीछे के इतिहास को जानने की कोशिश करते हैं और फिर उसके अनुसार व्यवहार करने की शपथ लेते हैं, यह संविधान और आजादी की उपलब्धि है लेकिन आगे चलकर जब हम जिम्मेदार नागरिक बनते हैं, जिम्मेदार पद पर पहुंचते हैं, जब इस जिम्मेदारी का ऋण चुकाने का मौका हमें ज्यादा मिलता है, तब हम कंजूसी करने लगते हैं और लापरवाही बरतने लगते हैं. यही इस संविधान की बहुत बड़ी कमजोरी भी है.”
हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं कि राष्ट्रभक्ति, देश-प्रेम, नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता जैसी बातें सिर्फ किताबी और दिखावटी नहीं होनी चाहिए, बल्कि ये लोगों के दिल में होनी चाहिए. उनके अनुसार, “हमारी शिक्षा इस तरह से होनी चाहिए कि हम जब भी इन सबसे विमुख होने लगें तो कुछ इस तरह अपराधबोध होना चाहिए जैसा कि धार्मिक कर्तव्यों के उल्लंघन के संदर्भ में होता है.”
दिल्ली के एक नामी पब्लिक स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाले वैभव कहते हैं कि वो कभी इस दिन अपने स्कूल में जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं. पूछने पर बताते हैं, “इस दिन हम सारे दोस्त एक जगह इकट्ठे होकर क्रिकेट खेलते हैं. शाम को किसी के घर पर पार्टी करते हैं और फिर छुट्टी खत्म.”
वैभव की बात का समर्थन करते हुए उनके एक मित्र सवाल करते हैं, “हमें पता है ये किसलिए मनाया जाता है लेकिन आप बताइए कितने लोग इसे मन से मनाते होंगे? किसी उत्सव या त्योहार को क्या किसी पर थोपा जाना चाहिए ? इन त्योहारों को तो लोगों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए और जिस तरह से होली-दिवाली-ईद जैसे त्योहार मनाए जाते हैं, वैसे ही इन्हें भी मनाया जाना चाहिए.”
लखनऊ के पास बाराबंकी में एक कॉलेज के प्रबंधक सत्यवान शुक्ल कहते हैं, “इस बात पर अवश्य विचार करना चाहिए कि आखिर वह कौन-सा कारण है कि देश के नागरिकों को गणतंत्र दिवस का मतलब समझ में नहीं आता है और अगर मतलब समझ में आता है और फिर भी स्वयं से मनाना नहीं चाहते हैं, तो ये और भी ज्यादा चिंता का विषय है.”
सत्यवान शुक्ल सवाल करते हैं कि क्या इसे हम सरकार कि विफलता नहीं कहेंगे कि साठ साल बाद भी उसका राष्ट्रीय उत्सव देश के आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया है. आम आदमी तो इसके पीछे के इतिहास को समझ ही नहीं सका, तो वह इसे हर्षोउल्लास से कैसे मना सकता है.
हालांकि ये पर्व गांव-शहर हर जगह हर्षोल्लास का साथ मनाया जाता है. लखनऊ के ग्रामीण इलाके में रहने वाले सरकारी कर्मचारी नाम न बताने की शर्त पर हंसते हुए कहते हैं, “यह लाइन हम लोग आकाशवाणी के समाचार में जब से पैदा हुए हैं तब से सुनते आ रहे हैं. जाहिर है, ये तब भी बोला जाता रहा होगा जब हम पैदा नहीं हुए थे यानी देश का गणतंत्र लागू होने के समय से. लोग समझते भी हैं इसका मतलब, लेकिन गणतंत्र जो सोचकर बनाया गया था, जिन्होंने इसकी लड़ाई लड़ी थी, वो सही मायनों में लागू नहीं हो पाया है. अभी हमें बहुत दूरी तय करनी है.”
वास्तव में आजादी मिलने के बाद भारत में एक नई संस्कृति और नया राष्ट्र बनाने की कोशिश शुरू की गई थी. इसलिए इस राष्ट्र से जुड़ी सारी तमाम चीजों की जगह नई संस्कृति को शुरू करने का प्रयास किया गया. नए नेताओं ने और महापुरुषों ने नया इतिहास रचाने की कोशिश की.
गणतंत्र दिवस हमें उस ऐतिहासिक क्षण की याद दिलाता है जब सदियों से जारी राजतंत्र को खत्म करके देश में जनता के शासन को औपचारिक रूप में लागू किया गया था. हालांकि व्यावहारिक धरातल पर आज भी ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो इस व्यवस्था के उद्देश्यों को न सिर्फ धूमिल कर रही हैं और बल्कि लोगों के विश्वास को भी कमतर कर रही हैं.
इन सबके बावजूद इसका अपने मूल स्वरूप में बना रहना, इसकी मजबूती ही है लेकिन यह भी ध्यान देने वाली बात है कि वर्षों पहले गणतंत्र दिवस के बारे में हरिशंकर परसाई की लिखी हुई ये बात भारत में गणतंत्र लागू होने के सत्तर साल बाद भी उसी रूप में मौजूद है,
“स्वतंत्रता दिवस भीगता है और गणतंत्र दिवस ठिठुरता है. मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूं. प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं. रेडियो टिप्पणीकार कहता है– ‘घोर करतल ध्वनि हो रही है. ‘मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है. हम सब लोग तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं. बाहर निकालने का जी नहीं होता, हाथ अकड़ जाएंगे. लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रही हैं. मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने को कोट नहीं हैं…लगता है गणतन्त्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है. गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की तालियां मिलती हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा नहीं है.”